अंकिता पंवार कविता की दुनिया में एक ताजी आवाज है - एक ताजा हस्तक्षेप। उनकी कविताएँ एक स्त्री की कविता होने के साथ ही साथ एक मानुष की भी कविताएँ है, और यह वह खूबी है जो उनके स्वर को अलहदा आयाम देती है।
बहुत समय बाद अनहद पर हम कविताएं पढ़ रहे हैं - यह क्रम अब जारी रहेगा। प्रत्येक शनिवार को आप यहाँ नई चीजें देख-पढ़ पाएंगे। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार तो रहेगा ही।
परिचय-
अंकिता पंवार
प्रकाशन- वागर्थ, लमही,
साक्षात्कार, , अमर उजाला, नई धारा, लोक गंगा आकंठ आदि मे रचनाएं प्रकाशित
जन्म - उत्तराखंड
मोबाइल – 8860258753
ई-मेल- 1990ankitapanwar@gmail.com
पता- प्रभात खबर, 15 पी, इंडस्ट्रियल एरिया, कोकार, राँची, झारखंड।
मंडी हाउस में एक शाम
वह सोचता रहा,उसने
तो कहा था
गिटार बजाते हुए
लड़के
उसे आ जाया करते
हैं पसंद अक्सर
झनझनाते रहे तार
और वह गाता रहा
एक हसीना थी....
किसी गुजरी हुई
शाम की याद में
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और वह खींचती रही
आड़ी तिरछी रेखायें
फाइल के पन्नों
मे कुछ इधर उधर देखते हुए
ठंडी हो चुकी चाय
के प्याले में अटका रह गया कोई
तस्वीर में उतरने
से कुछ पहले ही
वह ताकती रह गयी
दिशाओं को
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नाटक-करते करते
वह
सच में ही रो
पड़ा अभिनय की आड़ में
गूंजती रही
तालियां
और वह सोचता रहा
य़ह अभिनय की जीत
है या
उसकी हार
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और कविता करते
हुए
वह कहती रही
बस लिखती रही यूं
ही किसी के लिये
तुम्हें सुनाऊं
शब्दों का खयाल
अच्छा है
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चाय और अंडे
बनाती वो और उसका पति
परौसते हुए सोच
रहे थे
कच्चे मकान
और
ठिठुरती शामें
कितनी लम्बी होंगी अब की बार
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मंडी हाउस की के
ऊपर लटका हुआ चांद
और तुम
एक बार फिर ये
शाम अच्छी है
प्रेम में जीती हुई स्त्री
कुछ न कुछ बदलता
चला जाता है अन्तर्मन के हिस्से में
एक उदास प्रेम करती
हुई स्त्री
यकायक को जीने
लगती है प्रेम को
कुछ व्यस्तताएं
घेर लेती हैं उसे
जिनमें वह खोज
लेती है कभी फ्यूंली तो कभी राजुला को
इतिहासों और
किंवदंतियों के खानों से
और पुराने किले
में जगह तलाशते प्रेमी भी उसे अपने ही लगने लगते हैं
तभी लगता है..
सल्तनतों की दासियां / बेगमें एक बार फिर जागी हैं
एक उदासी और
बेख्याली में
और बादशाहों को
छोड़कर
दौड़ पड़ती हैं
अपने अपने हिस्से के जीवन के लिये
हाथियों की
टुकड़ियां के साथ बेजान से पड़े राजा
कर देते हैं
समर्पण
और वो प्रेम में
जीती हुई स्त्रीअकेले ही
कर रही होती है
पार
भीड़ भरे रास्तों
को।
पुरानी
टिहरी यादों में
बांध के पानी में
तलाशती मेरी आंखे
कब के डुब चुके
घंटाघर और
राजमहल की
सीढियों से फिसलते पैरो के निशानों को
धुंधली पडं चुकी
स्मृतियो की दुनिया से
फिर भी चला आता
है कोई चुपचाप कहता हुआ
यहीं कहीं ढेरों
खिलौनों की दुकानें पडी हैं
सिंगोरी मिठाई से
के पत्ते यही कहीं होगे बिखरे हुए
रंगबिरंगी फ्राक
के कुछ चिथडे जरूर नजर आ रहे तैरते हुए
बांध के चमकीले
पानी में
एक बचपन और जवानी
को जोड़ते हुए
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पानी को देखती
हूं
और मेरी कल्पनाएं
पसारने लगती हैं पांव
एक खूबसूरती तैर
जाती हैं आंखों के कोरों पर
चलती सूमो से
नीचे की ओर निहारती नजंरॆ
डूब जाना चाहती हैं
पानी में
टिमटिमाते तारों से प्रकाश में
ओह यह कितना बडां
छलावा है
पूरी एक सभ्यता
को डुबो चुके इस पानी मे
में भी दिखने
लगता है जीवन
मुआवजा
एक भैंस और दो
गाय मरे थे अबके चौमासा साबू चाचा की छान में
पिछले साल मर
गयीं थी तीन बकरियां
बाकी बची हुई एक
बकरी को खुद ही मारकर खा गये
सुना है प्रधान
चाचा ने दिलवाया है मुआवजा
प्रतापु चाचा के
वर्षों पुराने टूटे पड़े खंडहर पर
उनके एक और नये
मकान की छत के के लिये
और साबू चाचा के
कमजोर हाथ
खुद ही कर रहे
हैं चिनाई छज्जे की
क्योंकि पत्थर
तोड़ते हाथ नहीं ला पाये
शाम को कच्ची ही
सही एक थैली दारू
और भामा चाची के
पास था ही कहां वक्त कि वो
प्रधान चाची के
खेतों मे रोप पाती नाज को
बूढी सास को
छोड़कर।
चंद सिक्के
लौट गये कदम
लड़खड़ाते हुए
वह सिसक रही थी
आंखों मे लिये एक
अजीब सी शून्यता
उसका दुधमुहां
बच्चा मुस्कुरा रहा था
पर उसके पास था
ही क्या
सिवा कटोरे में
पड़े चंद सिक्कों के।
तुम्हारा पता
तुम्हारा कल्पना
मे भिगोया चेहरा
चीड़ की डालों से
उतर आता है मेरी गोद मे
फिर कहां रह पाती
हूं मैं यहां
पहुंच जाती हूं
उस आंगन की देहरी पर
जहां पुटकल की
छांव में कुछ बच्चे
गाने लगते हैं
कोई अन्जाना सा गीत हमारे लिये
क्योंकि तुम होते
हो जद्दोजहद में
बचाने के सखुआ के
फूलों को
और मै चुन रही
होती हूं फ्यूंलियों को तुम्हारे लिये
तभी अनायास ही
पहुंच जाती हूं बांज/बुरांश/ पलाशके अद्भभुत जंगलों में
तलाशते हुए
तुम्हारे वजूद को
वहीं जलकुर नदी
पर तैरते चांद में रसभौंरा और हिलांस
नहा रहे होते हैं
आलिंगनबद्ध होकर
और मैं खोज लेती
हूं तुम्हारा पता
साहस
बहुत आसान है पहाड़ की वादियों मे थिरकती किसी
सुंदरी को गढना अपनी क्लपनाओं में
पेंटिंग्स या कविताओं मे रचते हुये
उसमें स्वयं को बिसरा लेना
पर क्या कोई रच पाया है अपने एहसासों में
मुझ जैसी स्त्रियों को जिनकी देह लगती है किसी
सूखे पेड़ का अवशेष
हफ्तों बिना कंघी तेल के बाल लगते हैं
मानो कभी सुलझे ही न हों
जिनके हाथों का खुरदुरापन लगता हो किसी सूखे खेत
का प्रतिरूप
और खेतों की धूल मिट्टी जिनके हाथों को ही मटमैला
कर गयी है
घास लकड़ी का गठ्ठर लिये घंटों चली करती हैं
अक्सर
नंगे पांव भी झुलसते हुये सिसकते हुये
इतनी भी फुर्सत नहीं कि सहला सकें अपने जख्मों को
बैठकर
और व्यस्त है ऐसे कार्यों में जिनका कोई सम्मान
भी नहीं करता
ये सब हमने अपने लिये नहीं
उनके लिये किया है जिनको दिखती है
मेरी देह की कुरूपता
हमारी तपस्या नहीं
क्या तुम में अब भी साहस है कर सको एक ऐसी स्त्री
से प्रेम
जो अब तुम्हारे सामने है इस बदले हुये रूप के साथ
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
"नाटक-करते करते वह
ReplyDeleteसच में ही रो पड़ा अभिनय की आड़ में
गूंजती रही तालियां
और वह सोचता रहा
य़ह अभिनय की जीत है या
उसकी हार"...........उम्दा है!
"ओह यह कितना बडां छलावा है
पूरी एक सभ्यता को डुबो चुके इस पानी मे
में भी दिखने लगता है जीवन".........बेहतरीन!
"लौट गये कदम लड़खड़ाते हुए
वह सिसक रही थी
आंखों मे लिये एक अजीब सी शून्यता
उसका दुधमुहां बच्चा मुस्कुरा रहा था
पर उसके पास था ही क्या
सिवा कटोरे में पड़े चंद सिक्कों के।"......झकझोर देने वाली कविता!
संवेदनाओं के साथ चिंताएँ मुखर हैं अंकिता पंवार की कविताओं में.
अंकिता पंवार जी से परिचय और उनकी सुन्दर रचना प्रस्तुति हेतु आभार!
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